इक जज़्बातों की चासनी में लिपटा ....
जिसके , मोह -जाल में ....
उस जोगन का सिमटा था वजूद ।
जाल में उसके फसं गई थी वो ,
मान कर उसकी चाहना को सच ,
जो झूठ था था इक फ़रेब
उस बदलते मौसम की तरहा .. ..
वो नादान समझ ही ना पाई ,
क्या था उसके शब्दों के जाल का सच ।
सपने पलते रहे .....
ख़्वाबगाह की हंसी ज़मीं पर ,
इश्क की बारिश में ,मचलती बूँदों के जैसे ,
धीरे-धीरे .....
तन से जुदा , थे बहुत दूर ...
थे मन की गिरह से पक्के जुड़े ,
धड़कने लगे एक दूजे के दिल में ,
धीरे-धीरे .......
जज़्बातों का ... इक “*ज़ख़ीरा* “
खोल बैठी थी वो ......
रूह उसकी ...
भाल पर रख स्नेह का बोसा ,
दुआओं के धागों में सलामती उसकी ,
दिन - रात बाँधती रही .....
बन शमा़ राहे-रोशन तेरी ,करने को हर पल ....
जलती रही,
सालों से तकती रही थी राह .... तुम्हारी ,
तुम थे , बहुत करीब तो थे ....
पर नहीं थे मेरे ....
ताउम्र ...... महसूस करती रही ,
तुम्हारी ये दूरी....!!
बन्द कर दिया अब ,
हर वो दरवाज़ा .....
जो मुझ तलक तुम्हें लाता था ,
मेरे स्पंदनों से .....
अब एक लकीर खींच रही हूँ ....
अब तुम्हारे- हमारे दरमियाँ !!
@रेणुका
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