MILUGI PHIR KISI ROZ ... मिलूँगी फिर किसी रोज

मिलूँगी फिर किसी रोज 


मिलूँगी फिर किसी रोज 

किसी जन्म में बस तेरा बनने को 

सफ़र अधूरा ही सही चाहत

 तो मुकम्मल हुई 

हुई पूरी इक तमन्ना थी दर्दे-इश्क 

 को सहने की 

अधजगी रातों को जागकर 

तुझे सोचने की 

 थी चाहत ख़्यालों में आकर

दिल में तेरे बसर करने की ... पूरी हुई 

सफ़र अधूरा ही सही 

चाहत तो मुकम्मल हुई 

तस्वुर में था जो इक अदद सा चेहरा 


छूकर कर उसे ज़िन्दगी का 

अहसास तो हुआ .. 

 थी इक कसक दिल मे 

आईना बनू  तेरा ...

 दर्द तेरी भी आखोँ में नज़र आया 

मुझको 

 चाहत थी ये तेरी बाँहों में आकर 

    बिखर जाये ये वजूद मेरा ... 

समेट ले तू मुझको ही खुद में 

इक महक की तरहा ...

हसरत थी बन के सासें 
  
धड़कनों मे तेरी बस जाऊँ तेरी 

क़तरे -क़तरे में तेरे , महक 

आज भी ज़िन्दा है मेरी ... 

अहसासों  मे कर महसूस तू

 हर पल मुझको 

आज भी बदन से मेरे 

तेरी ख़ुशबू आये

रूह तो है एक हमारी .... 

दो  जिस्मों का लबादा ओढ़े 

मै तुझसे कहीँ ज़्यादा तुझमें

और तू मुझमे ,

मुझसे ज़्यादा शामिल  है


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