RESPECTED WOMEN - 2 सम्मानित औरतें - ( Part 2 )
दक़ियानूसी ज़लालत भरी सोच के
तहत उसके वजूद तक को क़ैद
कर लिया जाता है , ता- उमर रूह को
लहूलुहान करती है उसे तगं सोच की किरचें ।
लहूलुहान करती है उसे तगं सोच की किरचें ।
चीत्कार करती है आत्मा , शब्द आना चाहते है बाहर
लेकिन मौन की सुई से
मुहँ सिल दिया जाता है कि बहु तो
मुहँ सिल दिया जाता है कि बहु तो
गाय है कुछ नही बोलती कह कर ,
हर रोज़ परिवारनुमा कसाईखाने
में मानसिक बलात्कार होता है ।
हर दिन ज़िन्दगी का एक -२
हर दिन ज़िन्दगी का एक -२
लम्हा क़ैद में बीतता है और जैसे ना ....
ख़त्म होने वाली इक सज़ा मुक़र्रर हो जाती है ।
उसका वजूद हर रोज़ रूढ़ीवादिता की जजींरो
ख़त्म होने वाली इक सज़ा मुक़र्रर हो जाती है ।
उसका वजूद हर रोज़ रूढ़ीवादिता की जजींरो
में जकड़ उसकी सोच को बहुत इज़्ज़त के साथ
कई तालों में बन्द कर दिया जाता है ।
और अगर कोई ग़लती से अपनी इच्छा ज़ाहिर
कई तालों में बन्द कर दिया जाता है ।
और अगर कोई ग़लती से अपनी इच्छा ज़ाहिर
भी करना चाहे तो बड़ों का कोई लिहाज़ शर्म नही है ,
बड़े घर की बहुएँ सिर्फ़ बड़ों का कहना मानती है ।
बड़े घर की बहुएँ सिर्फ़ बड़ों का कहना मानती है ।
तुम्हारे माँ-बाप ने क्या बस यही संस्कार दिये है ।
ऐसे लफ़्ज़ो के मोटे-मोटे ताले मुँह पर लगा दिए जाते है
मानो वो कोई गुनाह कर जाती
ऐसा उसे एहसास करवाया जाता है ।
कि उसे ख़ुद पर शक होने लगता है कि
वो कोई गुनाह कर रही है ।
और उसे बना दिया जाता है
एक संस्कारी , सबकी इच्छाओं के
एक संस्कारी , सबकी इच्छाओं के
लिये जीने -मरने वाली सजी -सँवरी “लाश“....
हाँ एक “ संस्कारी लाश “ ही तो कहेंगे ।
पूरी ज़िन्दगी वो जिस परिवार के लिये
उन्हीं के द्वारा बनाई हुई समाज की गली-सड़ी
पूरी ज़िन्दगी वो जिस परिवार के लिये
उन्हीं के द्वारा बनाई हुई समाज की गली-सड़ी
परम्पराओं को अपनी इच्छाओं के विरूद्ध ढोती रही ।
कभी खुल कर मुस्कुरा भी ना पाई ।
कितना कुछ हर रोज # टूटता है बिखरता है उनके अन्दर ।
वही परिवार जो उससे इज़्ज़त के नाम पर
पूरी ज़िन्दगी उसकी ख़ुशियों ,
इच्छाओं को दरकिनार कर “ यूज “करता रहा .......
पूरी ज़िन्दगी उसकी ख़ुशियों ,
इच्छाओं को दरकिनार कर “ यूज “करता रहा .......
# हाँ यूज़ करना ही तो है .......
जहाँ नारी को महज़ एक इन्सान नही सिर्फ़
संस्कारी बहूँ माना जाये ,
जिसका खुद का कोई सम्मान नहीं है ,
जिसका खुद का कोई वजूद नहीं है ,
जिसका केवल फ़र्ज़ है हर रिश्ते को निभाना ।
जिसका खुद का कोई सम्मान नहीं है ,
जिसका खुद का कोई वजूद नहीं है ,
जिसका केवल फ़र्ज़ है हर रिश्ते को निभाना ।
हाँ वही परिवार ही बाद में
उसे “बेअक्ल “ “फूहड़ “ “ तुम्हें तो
उसे “बेअक्ल “ “फूहड़ “ “ तुम्हें तो
कुछ आता नही “ के तमग़ो से सम्मानित करता है ।
और जीवन के उस छोर पर अकेली बैठी सोचती है .....
कि मैं “”बेअकल ,फूहड़ ,
मुझे कुछ नही आता ....
कैसे हो गई “”
मुझे कुछ नही आता ....
कैसे हो गई “”
“ उम्रदराज़ माँग कर लाये थे दो दिन
दोनों ही तेरे ही सफ़र में कट गये “
To Be Continued......



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